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चलो, इक सफ़र पर निकलते हैं

चलो, इक सफ़र पर निकलते हैं

चलो, इक सफ़र पर निकलते हैं, जहाँ ख़्वाबों की मंज़िलें मिलती हैं। हर कदम पर यक़ीन का दिया जलाएं, अंधेरों में भी रौशनी सिलते हैं।

अकेले हैं तो क्या हुआ, रास्ते अपने होने लगते हैं। जब दिल में हो सच्ची चाह, तो कांटे भी फूल होने लगते हैं।

वो मंज़िल जो दूर सही, हर कोशिश से पास आने लगती है। जब इरादे हों फौलाद जैसे, तो किस्मत भी रास्ता दिखाने लगती है।

चलो उस गली की ओर, जहाँ हर मोड़ पर सपना पलता है। जहाँ उम्मीदों का आसमान खुला हो, और दिल हर ठोकर से संभलता है।

चलो, एक नई मंज़िल की तरफ़, ख़ुद को साथ लेकर चलते हैं। नज़रों में उजाला भरकर, हर अंधे मोड़ से लड़ते हैं।

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कभी मुरझाकर देखा हैं?

कभी देखा हैं?

कभी मुरझाकर देखा हैं ? दिल को बेहाल कर देखा हैं ? कभी टूटकर बिखरकर देखा हैं ? उस टूटे दिल को समेटकर देखा हैं ?

कभी औरों से दूर रहकर देखा हैं ? तन्हाई का रंग देखा हैं ? कभी खुद को हारकर देखा हैं ? जीत से अलविदा कह देखा हैं ?

कभी दोस्तों से बेवफाई देखी हैं ? दुश्मनों सी चाल देखी हैं ? कभी दुनिया का नशा देखा हैं ? दुनिया वालों का चलन देखा हैं ?

और क्या क्या देखा हैं ? ज़िन्दगी की कहानी देखा हैं ? और भी हैं ग़म ज़माने में- देखा हैं ? चलो कभी जी कर, फिर मरकर देखा हैं ?